(यि पङ्तियाँ मेरी यात्राकी मरुस्थलमे मिली पहली मरुद्यानकी प्रतिविम्ब हैँ। )
मुझे तलाश थी-ऐसी पवनकी, जिसकी एक स्पर्शसे खिले पत्थरभी।
तलाश थी- प्रेमनगरकी ऐसी बादशाहकी, जो एकबार झाँके और बस रुलादे।
खोज थी- उस सागरकी, जो डुबा सके सब गहिराइयाँ ध्यानकी।
तलाश थी- उस साकीकी, जिसकी शराब मैं पिउँ और रहु प्यासा भी,
और ऐसा नशा, जो दे होश भी और मस्ती भी।
तलाश थी- ऐसे आखोँकी, जो पढ् सके मेरी आखोँकी नमी।
तलाश थी-ऐसे नाविककी, जो अगर डुबादे तो भी सही,
और खोज थी- ऐसी वाणी, जो दे होठ्को हंसी और आँखोको नमी ,
तलाश थी- ऐसी चरणकी जिसे भिगा सके मेरी गम अनकही,
और आज जो मैंने पाया सोचके बढकर पाया।
(उही मरूद्यान-ओशो सिद्धार्थको समर्पित)
Very refreshing and mind soothing!
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